Tuesday, December 29, 2009
अहिंसा मेरे विश्वास का पहला नियम है । यही मेरे विश्वास का अन्तिम नियम भी है ।
अहिंसा मेरे विश्वास का पहला नियम है । यही मेरे विश्वास का अन्तिम नियम भी है । ये कथन गाँधी जी का है । इन वाक्यों हमें समझ आता है की उनके लिए अहिंसा के मायने क्या थे ?
Tuesday, December 22, 2009
मनुष्य प्रकृति और समय
हवा विषैली हो गई है ! पानी भी पीने योग्य नहीं रहा ! मृदा में भी मनुष्य ने ज़हर घोल दिया है ! प्रतीत होता है की "क़यामत" की शाम नजदीक है !
लेकिन मनुष्य अभी भी नहीं चेता, उसके लोभ ने उसे अँधा कर रखा है ! वनों की कटाई अभी भी जारी है ! बड़े-बड़े कारखानों से निकलने वाला धुंवा लगातार हवा को विषैला बना रहा है ! कारखानों का केमिकल मिला पानी नदियों के जल को जहरीला बना रहा है ! आखिर क्या होगा ! तरह तरह के राशायानिक खादों का प्रयोग करके मृदा को दूषित किया जा रहा है, जिससे मिटटी की उर्वरा शक्ति दिन ब दिन कम होती जा रही है, जो की फसलों के उत्पादन में कमी का कारण है ! फलस्वरूप महंगाई बढ़ रही है, जिसके परिणाम स्वरूप भ्रस्टाचार और मानवीय हिंसा बढ़ रही है !
एक समय था जब हर तरफ हरियाली ही हरियाली और शुद्ध हवा थी, नदियों का पीने योग्य था, और आज बिलकुल विपरीत है ! "मनुष्य" "प्रकृति" और "समय" ! मनुष्य और प्रकृति के इस लड़ाई का साक्षी "समय" है ! समय अपना कार्य कर रहा है ! इस लड़ाई से "समय" का तो कुछ भी नहीं बिगड़ेगा, किन्तु "मनुष्य" और "प्रक्रति" का पति नहीं क्या होगा ! "समय" ने ऐसी कई घटनाओं को देखा और इतिहास के पन्नो में दफ्न किया है ! "समय" अपना कार्य कर रहा है ! "समय" का चक्र चल रहा है, और सदा चलता रहेगा !
Monday, December 7, 2009
महंगाई का जिम्मेवार कौन??
आजादी के बाद भी नहीं ख़त्म हुई आदिवासिओं की समस्याएं
इस कारण इनकी परम्परागत अर्थ व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो गई है तथा आर्थिक रूप से ये बिलकुल पिछड़ गए हैं ! अधिकाँश आदिवासी आधुनिक समय में भी गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन कर रहे हैं ! आदिवासी उपयोजना , बीस सूत्री कार्यक्रम , केन्द्रीय सहायता तथा विशेष योजनाओं के बावजूद भी आदिवाशियों के आय में कोई खासा फर्क नहीं पड़ा है! गरीबी दूर करने वाली आई० आर० डी ० पी० योजना में छोटे तथा सीमांत आदिवासी किसानो को सरकार तराजू पकडा रही है !
शिक्षा तथा सहरी सभ्यता से दूर जंगलो में निवाश करने वाले आदिवासिओं का शोषण कोई नई बात नहीं है ! वनों से प्राप्त नैसर्गिग संपदा के लिए ठेकेदारों, साहूकारों तथा बिचौलियों द्वारा भारी शोषण किया जाता है ! वन से उत्पन्न वस्तुएं जैसे चिरौंजी, शहद आदि महँगी वस्तुओ का उचित मूल्य इन्हें नहीं मिल पाता ! लघु वन उत्पादों में वृद्धि की गई है! उसका लाभ इन लाखों आदिवासियों को न मिल कर चंद बिचौलियों के तिजोरी में बंद हो जाती है ! औद्योगीकरण के नाम पर जो ढांचा खडा किया गया है ! उससे सम्पूर्ण देश में बेदखल लोगो की एक लम्बी मांग खड़ी हो गई है!
चाहे कोयले की खाने हो या बाँध या अन्य भारी कारखाने तथा उद्योग हो कुल मिलाकर उनका लाभ कुछ वर्ग विशेष के लोगों को ही प्राप्त हो रहा है ! जिस गरीब आदिवासी की जमीं से कोयला निकला जाता है तथा विकाश के लिए जिस बुनियाद की नींव रखी जाती है उसमे आदिवासियों की भूमिका केवल ढाँचे तक ही सिमित रहती है ! सैकणों वर्षो से जिस जमीन से वह जुदा होता है, उससे अध्योगीकरण के नाम पर उसे वंचित कर दिया जाता है! उसकी जमीन के बदले हर्जाने के लिए कोई समय-सीमा निर्धारित नहीं की जाती! एक अधि सूचना द्वारा जिसे आदिवासी पढ़ भी नहीं सकता, जमीन सर्कार की हो जाती है! इसी प्रकार के कई अन्य अनेक समस्याओं के कारण आदिवासिओं का जीना दूभर हो गया है !
अत: सरकार को चाहिए की वो आदिवासिओं के हितार्थ कुछ नए नियम पारित करे जिसका की कडाई से पालन हो ताकि आदिवासिओं को "सामाजिक" , "आर्थिक" और "धार्मिक" समस्याओं से मुक्ति मिले जिससे की वह एक ने जीवन की शुरुआत करें
Friday, October 23, 2009
भारत ग्लोबल वॉर्मिन्ग के लिहाज से हॉट स्पॉट है .....
किसी भी प्राकृतिक आपदा का प्रभाव कई कारकों के आधार पर मापा जाता है। मसलन सही उपकरणों और सूचना तक पहुंच और राहत और उपाय के लिए प्रभावी राजनैतिक तंत्र। कई बार इनका प्रभावी तरीके से काम न करना आपदा से प्रभावित होने वाले हाशिए पर पड़े लोगों की जिंदगी और भी बदतर कर देता है।
मौसम में बदलाव के कारण ज्यादा बड़े स्तर पर आने वाली प्राकृतिक आपदाओं से निपटने के लिए प्रभावी तंत्र बनाया जाए, नही तो तबाही और ज्यादा होगी। घनी आबादी वाले और खतरे की आशंका से जूझ रहे इलाकों में सरकारी तंत्र और स्थानीय लोगों को सुविधाएं और प्रशिक्षण दिया जाए, ताकि आपदा के बाद पुनर्वास के दौरान तेजी बनी रहे और काम की निगरानी भी हो।
हमारी पर्यावरण चिंताओं पर यह निराशावादी सोच इतनी हावी होती जा रही है कि अब यह कहना फैशन बन गया है कि जनसंख्या यूं ही बढ़ती रही तो 2030 तक हमें रहने के लिए दो ग्रहों की जरूरत होगी।
वर्ल्ड वाइल्डलाइफ फंड (डब्ल्यूडब्ल्यूएफ) और पर्यावरण संरक्षण से जुड़े कई अन्य संगठन इस फुटप्रिंट को आधार बनाकर जटिल गणनाएं करते रहे हैं। उनके मुताबिक हर अमेरिकी इस धरती का 9।4 हेक्टेयर इस्तेमाल करता है। हर यूरोपीय व्यक्ति 4.7 हेक्टेयर का उपयोग करता है। कम आय वाले देशों में रहने वाले लोग सिर्फ एक हेक्टेयर का इस्तेमाल करते हैं। कुल मिलाकर हम सामूहिक रूप से 17.5 अरब हेक्टेयर का इस्तेमाल करते हैं। लेकिन दुर्भाग्य से हम एक अरब इंसानों को धरती पर जीवित रहने के लिए 13.4 हेक्टेयर ही उपलब्ध है।
सभी तरह के उत्सर्जन में 50 फीसदी की कटौती से भी हम ग्रीन हाउस गैसों को काफी हद तक कम कर सकते हैं। एरिया एफिशियंशी के लिहाज से कार्बन कम करने के लिए जंगल उगाना बहुत प्रभावी उपाय नहीं है। इसके लिए अगर सोलर सेल्स और विंड टर्बाइन लगाए जाएं, तो वे जंगलों की एक फीसदी जगह भी नहीं लेंगे। सबसे अहम बात यह है कि इन्हें गैर-उत्पादक क्षेत्रों में भी लगाया जा सकता है। मसलन, समुद में विंड टर्बाइन और रेगिस्तान में सोलर सेल्स लगाए जा सकते हैं।
जर्नल 'साइंस' में छपी रिपोर्ट के मुताबिक, भारत समेत तीसरी दुनिया के अधिकांश देशों को तेजी से बढ़ती जनसंख्या और उपज में कमी की वजह से खाद्य संकट का सामना करना पड़ेगा। तापमान में बढ़ोतरी से जमीन की नमी प्रभावित होगी, जिससे उपज में और ज्यादा गिरावट आएगी। इस समय ऊष्ण कटिबंधीय और उप-ऊष्ण कटिबंधीय इलाकों में तीन अरब लोग रह रहे हैं।एक अनुमान के मुताबिक 2100 तक यह संख्या दोगुनी हो जाएगी। रिसर्चरों के अनुसार, दक्षिणी अमेरिका से लेकर उत्तरी अर्जेन्टीना और दक्षिणी ब्राजील, उत्तरी भारत और दक्षिणी चीन से लेकर दक्षिणी ऑस्ट्रेलिया और समूचा अफ्रीका इस स्थिति से सबसे ज्यादा प्रभावित होंगे।
एक रिपोर्ट में दावा किया गया है कि वर्ष 2050 तक ग्लेशियरों के पिघलने से भारत, चीन, पाकिस्तान और अन्य एशियाई देशों में आबादी का वह निर्धन तबका प्रभावित होगा जो प्रमुख एवं सहायक नदियों पर निर्भर है।
आईपीसीसी की रिपोर्ट में बताया गया है कि 2005 में बिजली सप्लाई के दूसरे ऊर्जा विकल्पों की तुलना में न्यूक्लियर पावर का योगदान 16 प्रतिशत है , जो 2030 तक 18 प्रतिशत तक बढ़ाया जा सकता है। इससे कार्बन उत्सर्जन की कटौती के काम में काफी मदद मिल सकती है , पर इसके रास्ते में अनेक बाधाएं हैं - जैसे परमाणु संयंत्रों की सुरक्षा की चिंता , इससे जुड़े एटमी हथियारों के प्रसार का खतरा और परमाणु संयंत्रों से निकलने वाले एटमी कचरे के निबटान की समस्या।
अगर एटमी ऊर्जा का विकल्प ऐसे देशों को हासिल हो गया , जिनका अपने एटमी संयंत्रों पर पूरी तरह कंट्रोल नहीं है , तो यह विकल्प काफी खतरनाक हो सकता है। ऐसी स्थिति में वे न सिर्फ खुद बड़ी मात्रा में परमाणु हथियार बनाकर दुनिया के लिए बड़ी भारी चुनौती खड़ी कर सकते हैं और आतंकवादी भी इसका फायदा उठा सकते है ।
आज दुनिया एटमी कचरे के पूरी तरह सुरक्षित निष्पादन का तरीका नहीं खोज पाई है। इसका खतरा यह है कि अगर किसी वजह से इंसान उस रेडियोधर्मी कचरे के संपर्क में आ जाए , तो उनमें कैंसर और दूसरी जेनेटिक बीमारियां पैदा हो सकती हैं। इन स्थितियों के मद्देनजर जो लोग ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी लाने के सिलसिले में एटमी एनर्जी को एक समाधान के रूप में देखने के विरोधी हैं , वे अक्सर अक्षय ऊर्जा के दूसरे स्रोतों को ज्यादा आकर्षक और सुरक्षित विकल्प बताते हैं।
एटमी एनर्जी कोई सरल - साधारण हल नहीं हो सकती , क्योंकि एक न्यूक्लियर प्लांट को चलाने के लिए बहुत ऊंचे स्तर की तकनीकी दक्षता , नियामक संस्थानों और सुरक्षा के उपायों की जरूरत पड़ती है। यह भी जरूरी नहीं है कि ये सभी जगह एक साथ मुहैया हो सकें। इसकी जगह अक्षय ऊर्जा के विकल्पों में सार्वभौमिकता की ज्यादा गुंजाइश है , पर इनमें भी कुछ चीजों की अनिवार्यता अड़चन डालती है। उदाहरण के लिए सौर ऊर्जा या पवन ऊर्जा की क्षमता वहां हासिल नहीं की जा सकती , जहां सूरज की किरणें और हवा पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध न हों। जिन देशों में साल के आठ महीने सूरज के दर्शन मुश्किल से होते हों , वहां सौर ऊर्जा का प्लांट लगाने से कुछ हासिल नहीं हो सकता। इसी तरह पवन ऊर्जा के प्लांट ज्यादातर उन इलाकों में फायदेमंद साबित हो सकते हैं , जो समुद्र तटों पर स्थित हैं और जहां तेज हवाएं चलती हैं।
किसी भी देश को अपने लिए ऊर्जा के सभी विकल्पों को आजमाना होगा और अगर उसके लिए ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन महत्वपूर्ण मुद्दा है , तो उसे अक्षय ऊर्जा बनाम एटमी ऊर्जा के बीच सावधानी से चुनाव करना होगा। यह स्वाभाविक ही है कि एटमी एनर्जी को लेकर कायम चिंताओं के बावजूद अगले पांच वर्षों में इसमें उल्लेखनीय इजाफा हो सकता है। बिजली पैदा करने वाले ताप संयंत्र ( थर्मल प्लांट ) भारी मात्रा में कार्बन डाइ - ऑक्साइड का उत्सर्जन करते हैं , जबकि उनकी तुलना में एटमी संयंत्र क्लीन एनर्जी का विकल्प देते हैं। उनसे पर्यावरण प्रदूषण का कोई प्रत्यक्ष खतरा नहीं है। आज दुनिया जिस तरह से क्लीन एनर्जी के विकल्प आजमाने पर जोर दे रही है , उस लिहाज से भी भविष्य परमाणु संयंत्रों से मिलने वाली बिजली का ही है। परमाणु संयंत्रों से मिलने वाली बिजली काफी सस्ती भी पड़ सकती है ।
सरकार और प्राइवेट सेक्टर को अक्षय ऊर्जा के मामले में शोध और डिवेलपमंट पर भारी निवेश करने की जरूरत है। इससे अक्षय ऊर्जा की लागत में उल्लेखनीय कमी लाई जा सकेगी। आज की तारीख में कार्बन उत्सर्जन की कीमत पर अक्षय ऊर्जा प्राप्त करने की लागत एटमी एनर्जी की तुलना में काफी ज्यादा है।
ऑस्ट्रेलिया के पास मौजूद पापुआ न्यूगिनी का एक पूरा द्वीप डूबने वाला है। कार्टरेट्स नाम के इस आइलैंड की पूरी आबादी दुनिया में ऐसा पहला समुदाय बन गई है जिसे ग्लोबल वॉर्मिंग की वजह से अपना घर छोड़ना पड़ रहा है - यानी ग्लोबल वॉर्मिंग की पहली ऑफिशल विस्थापित कम्युनिटी। जिस टापू पर ये लोग रहते हैं वह 2015 तक पूरी तरह से समुद्र के आगोश में समा जाएगा।
ऑस्ट्रेलिया की नैशनल टाइड फैसिलिटी ने कुछ द्वीपों को मॉनिटर किया है। उसके अनुसार यहां के समुद्र के जलस्तर में हर साल 8।2 मिलीमीटर की बढ़ोतरी हो रही है। ग्लोबल वॉर्मिंग के बढ़ने के साथ यह समस्या और बढ़ती जाएगी। कार्टरेट्स के 40 परिवार इसके पहले शिकार हैं।
इस तरह हमें ग्लोबल वार्मिंग की समस्या को काफी गंभीरता से लेना होगा । क्योटो प्रोटोकाल के बाद आने वाले प्रोटोकाल में इसके लिए पुख्ता इंतजाम किया जाना चाइये ताकि कोई भी अपनी जिम्मेदारी से बच नही सके । भारत सरकार को भी अपने स्टार से जिम्मेदारी का निर्वहन करना चाहिए । हम प्रकृति के साथ खिलवाड़ नही कर सकते अगर करते है तो आने वाली जेनेरेशन को जवाब देना पड़ेगा । अभी समय है और समय रहते ही त्वरित उपाय करने होंगे नही तो परिणाम भयंकर हो सकते है ।
Monday, July 13, 2009
हमारे जंगल ....
सुप्रीम कोर्ट ने भी कई बार इस संदर्भ में महत्वपूर्ण हस्तक्षेप किया है, जैसे हाल में अरावली क्षेत्र में हरियाली नष्ट करने वाले खनन पर रोक लगाई है । इस तरह के प्रयासों के बावजूद प्राकृतिक वनों की कटाई की अनुमति बहुत तेजी से दी जा रही है। यही स्थिति रही तो चार-पांच वर्षों में ही हमारे बचे-खुचे प्राकृतिक वनों की असहनीय क्षति हो जाएगी। सरकार का कहना है की बड़ी संख्या में पेड़ लगाए जा रहे है जबकि वास्तविकता इसके ठीक उलट है । कुल मिलाकर देखे तो पर्यावरण की असहनीय क्षति हो रही है और कृत्रिम रूप से लगाए गए वृक्ष कभी भी प्राकृतिक वनस्पति का स्थान नही ले सकते । ग्लोबल वार्मिंग से निबटने के लिए सबसे आसान तरीका यही है की ज्यादा से ज्यादा पेड़ लगाये जाय ।
सुप्रीम कोर्ट की चेतावनी को हमारी केन्द्र और राज्य सरकारें गंभीरता से नही ले रही है , यह एक चिंता का विषय है । इन्हे अपनी जिम्मेदारी समझनी चाहिए नही तो सतत विकास की अवधारणा केवल एक अवधारणा ही बन कर रह जायेगी । बड़े शहरों में शिक्षा के माध्यम से पर्यावरण व पेड़ों की रक्षा की आवश्यकता के बारे में जानकारी तो बढ़ी है, पर इसके बावजूद दिल्ली हो या मुंबई या अपेक्षाकृत छोटे शहर, बड़ी संख्या में वृक्षों की कटाई के दर्दनाक समाचार मिलते ही रहते हैं।अतः पर्यावरण के प्रति जागरूकता का प्रसार करना सरकार की जिम्मेदारी बनती है ।
सरकार अपनी इस जिम्मेदारी से पल्ला नही झाड़ सकती ।
नगरों में आर्थिक दबाव के कारण भी वृक्षों की बड़ी संख्या में कटाई हो रही है । लोग पार्क की बजाय गाड़ी की पार्किंग में ज्यादा रूचि लेते है । अब समय की मांग है की लोगो में जनजागरण का अभियान चलाया जाय और पेड़ों की कटाई पर तुंरत रोक लगा दी जाय ।
Saturday, June 20, 2009
अब हमें चेत जाना चाहिए .....
भारतीयों के लिए गंगा एक पवित्र नदी है और उसे लोग जीवनदायिनी मानते हैं। रिपोर्ट में चेतावनी दी गई है कि नदियों में परिवर्तन और उन पर आजीविका के लिए निर्भरता का असर अर्थव्यवस्था, संस्कृति और भौगोलिक प्रभाव पर पड़ सकता है। गंगा तब जीवनदायिनी नही रह पायेगी । बाढ़ और सूखे का प्रकोप बढ़ जाएगा ।
जर्मनी के बॉन में जारी रिपोर्ट Searh of Shelter : Mapping the Effects of Climate Change on Human Mitigation and Displacement में कहा गया है कि ग्लेशियरों का पिघलना जारी है और इसके कारण पहले बाढ़ आएगी और फिर लंबे समय तक पानी की आपूर्ति घट जाएगी। निश्चित रूप से इससे एशिया में सिंचित कृषि भूमि का बड़ा हिस्सा तबाह हो जाएगा। यह रिपोर्ट एक भयावह स्थिति को प्रर्दशित करता है । समय रहते ही चेत जाने में भलाई है , नही तो हम आने वाली भावी पीढियों के लिए कुछ भी छोड़ कर नही जायेंगे और यह उनके साथ बहुत बड़ा धोखा होगा ।
Wednesday, April 22, 2009
बंद कमरों में पृथ्वी की स्थिति पर चर्चा होती है और फ़िर अगले दिन सब भूल जाते है ...
पृथ्वी दिवस भी होली , दिवाली ,दशहरा जैसे त्योहारों की तरह खुशी का दिन और खाने पिने का दिन मान कर मनाया जाने लगा है । इसके उद्देश्य को लोग केवल उसी दिन याद रखते है । बल्कि मै तो कहुगा की घडियाली आंसू बहाते है । हमें इस बात का अंदाजा नही है की कितना बड़ा संकट आने वाला है और जब पानी सर से ऊपर चला जायेगा तो चाहकर भी कुछ नही कर सकते , अतः बुद्धिमानी इसी में है की अभी चेत जाए ।
वैश्विक अतर पर पर्यावरण को बचाने की मुहीम १९७२ के स्टाकहोम सम्मलेन से होती है । इसी सम्मलेन में पृथ्वी की स्थिति पर चिंता व्यक्त की गई और हरेक साल ५ जून को विश्व पर्यावरण दिवस मनाने पर सहमती व्यक्त की गई । १९८६ के मोंट्रियल सम्मलेन में ग्रीन हाउस गैसों पर चर्चा की गई । १९९२ में ब्राजील के रियो दे जेनेरियो में पहला पृथ्वी सम्मलेन हुआ जिसमे एजेंडा २१ द्वारा कुछ प्रयास किए गए । इसी सम्मलेन के प्रयास से १९९७ में क्योटो प्रोटोकाल को लागू करने की बात कही गई । इसमे कहा गया की २०१२ तक १९९० में ग्रीन हाउस गैसों का जो स्तर था , उस स्तर पर लाया जायेगा । अमेरिका की बेरुखी के कारण यह प्रोटोकाल कभी सफल नही हो पाया । रूस के हस्ताक्षर के बाद २००५ में जाकर लागू हुआ है । अमेरिका अभी भी इसपर हस्ताक्षर नही किया है । यह रवैया विश्व के सबसे बड़े देश का है , जो अपने आपको सबसे जिम्मेदार और लोकतांत्रिक देश बतलाता है । वह कुल ग्रीन हाउस गैस का २५%अकेले उत्पन्न करता है ।
अगर ऐसा ही रवैया बड़े देशो का रहा तो पृथ्वी को कोई नही बचा सकता । जिस औद्योगिक विकास के नाम पर पृथ्वी को लगातार लुटा जा रहा है , वे सब उस दिन बेकार हो जायेगे जब प्रकृति बदला लेना आरम्भ करेगी ।
Monday, April 20, 2009
हमारे अलावा इस ब्रह्मांड में कही और जीवन है ???
सोचता हूँ । हमारे अलावा इस ब्रह्मांड में कही और जीवन है ???
अगर नही तो रोंगटे खड़े हो जाते है । इतने बड़े ब्रह्माण्ड में हम अकेले है !विश्वास नही होता ...लगता है , कोई तो जरुर होगा ।
फ़िर सोचता हूँ । आकाश को इतना फैला हुआ नही होना चाहिए । कुछ तो बंधन जरुरी है । भटकने का डर लगा रहता है ।
सुना है पृथ्वी गोल है । हो सकता है , ब्रह्माण्ड भी गोल हो । किसे पता ?? भाई हमारी भी तो एक सीमा है । सबकुछ नही जान सकते । कुछ दुरी तक ही भाग दौड़ कर सकते है । भाग दौड़ करते रहे । इसी का नाम तो जीवन है । इतना सलाह जरुर देना चाहुगा की सबकुछ जानने के चक्कर में न पड़े । यह एक बेकार की कवायद है । इस राह पर चल मंजिल को पाना तो दूर की बात है , खो जरुर देगे ।
इधर ये भी सुनने में आया है की एक क्षुद्र ग्रह पृथ्वी से टकराने वाला है ...शायद २०२८ में !
यह सनसनी है या हकीकत नही पता ।
अगर सनसनी है ...तो है ..पर वास्तव में ऐसा है तो परीक्षा की घड़ी आ गई है ...
इस खबर को सुनकर सुमेकर लेवी वाली घटना याद आती है , जब मै बच्चा था । सुमेकर बृहस्पति से जा टकराया था । यह घटना १९९४ की है । उस समय ऐसी ख़बर सुन डर गया था ।
देखते है ...२०२८ में क्या होता है .......
Tuesday, April 7, 2009
आतंकवाद ......पकिस्तान ......भारत
बाद में पश्चिमी देशों ने जहां अपने लिए ख़तरनाक सिद्ध होने वाले आतंकवादियों की धरपकड़ के लिए पाकिस्तान पर बहुत जोर बनाया, वहीं भारत के लिए खतरनाक माने जाने वाले आतंकवादी संगठनों के खिलाफ कार्रवाई पर कम ध्यान दिया। इसी कारण अमेरिका के नेतृत्व में आतंकवाद विरोधी युद्ध तेज हुआ, पर भारत के खिलाफ पाकिस्तान की धरती से आतंकवादी वारदातों का सिलसिला शुरू हो गया। यह अमेरिका और पश्चिमी देशों की दोमुहीं निति थी जिसका खामियाजा आज भारत भुगत रहा है ।
आज हम अमेरिकी नेतृत्व में चल रहे आतंकविरोधी अभियान में सहयोग कर रहे है , अच्छी बात है , पर इस मामले में हमें उसका पिछलग्गू बनकर नहीं बनना चाहिए। इसकी बजाय हमें अपने दीर्घकालीन हितों के प्रति सचेत रहना चाहिए। हमें आतंकवाद से कैसे निपटना है- इसके लिए स्वतंत्र रणनीति अपनानी होगी . हमारी समस्या बिल्कुल अलग है अतः इसका समाधान भी अलग तरीके से ही होगा ।
निश्चित ही पाकिस्तान में पनप रहा आतंकवाद भारत और शेष दुनिया के लिए चिंता का विषय है, पर यह भी ध्यान में रखें कि यह तो पाकिस्तान में अमन-शांति चाहने वाले लोगों और वहां की लोकतांत्रिक ताकतों के लिए भी एक बड़ा खतरा है। वहां के अधिकाँश लोग और लोकतांत्रिक संगठन आतंकवाद की बढ़ती ताकत पर रोक चाहते हैं। वहां की लोकतांत्रिक ताकतें फाटा क्षेत्र, उत्तर पूर्वी सीमा प्रांत के कुछ इलाकों और स्वात घाटी पर तालिबान के बढ़ते नियंत्रण से बहुत चिंतित हैं। ऐसे में भारत वहां पर लोकतान्त्रिक प्रक्रिया को बढावा देने में सहयोग कर सकता है । यह भी याद रखना होगा की अगर तालिबान का प्रसार पकिस्तान में होता है तो कश्मीर में भी उनकी उपस्थिति से इनकार नही किया जा सकता है । यह एक घातक स्थिति होगी । हमें पहले ही तैयार रहना चाहिए ।
भारत को अपनी सुरक्षा को मजबूत बनाते हुए आतंकवाद से निपटना ही होगा, पर साथ ही यह कोशिश करनी होगी कि पाकिस्तान के अंदर दहशतगर्द पर लगाम लगाने का जो मैकनिज़म है, वह भी मजबूत हो। गौर करने वाली बात यह है कि कोई भी आतंकी घटना होने पर भारत से जब भड़काऊ पाकिस्तान-विरोधी बयान जारी होता है, तो इससे पाकिस्तान की कट्टरवादी, आतंकवादी ताकतें मजबूत होती हैं और अमन-पसंद शक्तियां कमजोर पड़ती हैं। भारत के बयान पाकिस्तान विरोधी न होकर वहां पनप रहे आतंकवाद पर चोट करने वाले होने चाहिए। ये बयान स्पष्टत: आतंकवाद और उससे होने वाली क्षति पर केंदित होने चाहिए।
भारत को इस बारे में अभियान जरूर चलाना चाहिए कि पाकिस्तान के आतंकवादियों, कट्टरपंथियों और तालिबानी तत्वों से भारत समेत पूरे विश्व को कितना गंभीर खतरा है, पर यह अभियान पाकविरोधी न होकर। पाकिस्तान से पोषित आतंकवाद का विरोधी होना चाहिए। इन तरह के अभियानों का फर्क समझना बहुत जरूरी है। पाकिस्तान के अंदर से संचालित हो रहे आतंकवाद के विरोध में अभियान चलाते या कोई बयान देते समय पाकिस्तान की आम जनता और लोकतांत्रिक ताकतों को यह अहसास नहीं होना चाहिए कि हम उन्हें घेर रहे हैं। अपितु उन्हें यह महसूस होना चाहिए कि दहशतगर्द के खिलाफ उनके संघर्ष में भारत उनके साथ है। हमारी यह सोच पाकिस्तान के मीडिया के माध्यम से वहां के लोगों तक पहुंचनी चाहिए।
भारत चूंकि दक्षिण एशिया का एक अहम व असरदार मुल्क है, इसलिए इस देश की यह जिम्मेदारी बनती है कि वह विश्व के विभिन्न मंचों से दहशतगर्द और कट्टरपंथी ताकतों के खिलाफ आवाज उठाने वाले लोगों व संगठनों को मजबूत करने में मदद दे। उनके ऐसे विरोध को बुलंद करने वाली जमीन तैयार करे। खास तौर से भारत और पाकिस्तान के अमन-पसंद लोगों के मेलजोल के मौकों को बढ़ानाए। ऐसी कोशिशों से ही दक्षिण एशिया में सांप्रदायिक सद्भाव का माहौल बनेगा। यह कोशिश भी पूरे जोर से की जानी चाहिए कि आतंकवादियों और कट्टरपंथी ताकतों द्वारा गुमराह युवा अगर अमन की राह पर लौटना चाहें, तो उनके परिवार के सहयोग से उनके पुनर्वास के प्रयास हों।
भारत के अंदर भी कुछ ऐसे लोग और ताकतें मौजूद हैं, जो धर्म को कट्टरपंथी हिंसा की राह पर ले जाना चाहती हैं। अगर हम पूरी दुनिया में पाकिस्तान पोषित आतंकवाद का मुद्दा उठा रहे हैं और उसके खिलाफ अभियान चलाना चाहते हैं, तो यह भी जरूर है कि अपने घर के भी इन कट्टरपंथी हिंसक तत्वों के विरुद्ध कड़े कदम उठाएं, ताकि हमारी कथनी और करनी में कोई फर्क न नजर आए। इन उपायों को आजमाने से पाकिस्तान पोषित आतंकवाद पर निश्चित रूप से लगाम लगेगी। इस क्षेत्र में लंबे समय तक शांति-स्थिरता कायम रह सकेगी। अगर हमारी कथनी और करनी में फर्क होता है तो आतंकवाद के विरुद्ध लड़ाई कमजोर हो जायेगी । आतंरिक अशांति को नियंत्रित कर ही हम बाह्य आतंकवाद पर लगाम लगा सकते है ।
अमेरिका और आतंकवाद
Sunday, April 5, 2009
आज की राजनीति ..एक गन्दा व्यवसाय
न तो आदर्श है, न सोच है, न उसूल हैं और न ही कोई विचारधारा है। जो अजेंडा चुनाव से पहले जितने जोर-शोर से प्रचारित किया जाता है, चुनाव के बाद उसका कहीं नामोनिशान नहीं मिलता। चुनाव से पहले तमाम वादे किए जाते हैं। लोगों की समस्याओं को खत्म करने के इरादे जाहिर किए जाते हैं। लेकिन वोट पड़ने के बाद ये सब हवा हो जाते हैं। लोगों को मुसीबतों से मुक्ति नहीं मिलती। समस्याएं जस की तस बनी रहती हैं। वैसे तो इन्फ्रास्ट्रक्चर की बात होनी चाहिए, शिक्षा की बात होनी चाहिए, ऊर्जा की बात होनी चाहिए, स्वास्थ्य की बात होनी चाहिए, गरीबी की बात होनी चाहिए.....होती भी है केवल एक महीने भाषणों में ........
Tuesday, March 31, 2009
यु जी सी द्वारा उच्च शिक्षा में सुधार के प्रयास
वैसे भी आतंरिक मूल्यांकन में यह बात सामने आई है की टीचर अपने पसंदीदा छात्रों को ज्यादा नंबर देते है और कुछ तो इतने लोभी किस्म के होते है की पैसा भी खाते है । इसी तरह से कुछ छात्रों से अपने घर का काम भी कराते है । आतंरिक मूल्यांकन से ऐसे प्रोफेसरों की चांदी हो जायेगी ।
कुछ अन्य सुझाव है ...यूजीसी ने शैक्षिक व प्रशासनिक सुधारों के लिए गठित ए. गणनम समिति की सिफारिशों के आधार पर सभी यूनिवर्सिटियों में ग्रेडिंग और सेमिस्टर सिस्टम लागू कराने की पहल की है। उच्च शिक्षा के ग्लोबल मानकों के मद्देनजर हमारी यूनिवर्सिटियों को अंकों और डिविजन की पारंपरिक प्रणाली से बाहर निकलना चाहिए।यह सुझाव काफी अच्छा है चर्चा और व्यापक व्यवस्था कर इसे लागू किया जा सकता है ।
आज बहुत बड़ी तादाद में हमारे छात्र उच्च और प्रफेशनल डिग्रियों व कोर्सों के लिए विदेशों का रुख कर रहे हैं। जब उनकी डिग्रियां और अंक वहां के सेमिस्टर या ग्रेडिंग सिस्टम से मेल नहीं खाते, तो दाखिले में दिक्कत होती है। अगर हमारा सिस्टम उनकी तरह होगा तो हमारे छात्रों को ऐसी परेशानी नहीं होगी। हमारी भी संभावना बढेगी विदेशों से और ज्यादा छात्र भारतीय यूनिवर्सिटियों में दाखिला लेगें क्योंकि यहां ऐसी शिक्षा उन्हें बहुत सस्ती पड़ेगी। ग्रेडिंग प्रणाली अंक प्रदान करने के सिस्टम से ज्यादा उपयोगी है, इसीलिए यहां सीबीएसई की परीक्षाओं में भी उसे अपनाया जा रहा है। पढ़ाई के लिहाज से साल में सिर्फ एक बार परीक्षा लेने से स्टूडंट पर सारे कोर्स की तैयारी एक साथ करने का दबाव बनता है। इसकी जगह सेमिस्टर और निरंतर मूल्यांकन करने वाला पैटर्न उन्हें ज्यादा सीखने के अवसर देता है और तनाव मुक्त रखता है।इस प्रकार यह प्रणाली व्यक्तित्व के विकास में भी मददगार साबित हो सकती है ।
Monday, March 30, 2009
आज का संगीत ...
पुराने गानों को सदाबहार गाने यों ही नहीं कहा जाता।उनमे वो बात है जो आज के गानों में नही दिखती । उन्हें बार बार सुनने का मन करता है । ऐसा नही है की आज अच्छे गाने नही बनते , आज भी अच्छे गाने है पर उनकी तादाद बहुत ही कम है ।
Sunday, March 29, 2009
ऐसी ब्लोगिंग पर लानत है .....
यह चिंता का विषय है । किसी आदमी को गाली देना अभिवक्ति की स्वतंत्रता नही हो सकती । आलोचना मुद्दों पर आधारित होनी चाहिए न की व्यक्तिगत आरोप प्रत्यारोप लगाये जाने चाहिए । मुझे लगता है ऐसे लोगो के पास कोई योजना नही है और न ही कोई विचारधारा है । बस भेड़ की तरह ब्लॉग्गिंग करने आ गए है ....खैर यह उनका अधिकार है और उनसे कोई छीन भी नही सकता ...ऐसा होना भी नही चाहिए । पर अच्छा होगा की कुछ मर्यादा का ख्याल रखा जाए नही तो ब्लोगिंग की पहचान खतरे में पड़ सकती है । हमें यह संकल्प लेना चाहिए की ब्लोगिंग की दुनिया को साफ़ सुथरा बनाए रखेगे और ऐसे लोगो को कभी प्रोत्साहित नही करेगे जिनका मकसद केवल सनसनी पैदा करना है ।
स्थिति बड़ी भयावह है , ऐसे ऐसे शब्दों का प्रयोग हो रहा है , जिन्हें बोलने में भी शर्म आती है ...... कुछ शब्द तो बहुत घटिया होते है । कुत्ते , कमीने , हरामजादा , माधरचोद , लौंदियाबाज , साले , हरामी , गांड में मारुगा , सूअर कही के , बेटी चोद , चूतिया कही के ..... बहुत सारे ऐसे शब्द जिनका जिक्र करने में भी मुझे शर्म आती है । और इनका प्रयोग किसी ख़ास व्यक्ति के में सन्दर्भ में भी किया जा रहा है , जो माफ़ी के काबिल नही है ।
मै उन सभी महानुभावों से कहना चाहता हूँ की आप इस तरह के शब्दों का प्रयोग कर महान ब्लोगर या विद्वान् कभी नही बन सकते । अगर ऐसे शब्दों का प्रयोग कर कोई महान बन जाता है तो मुझे नही बनना ऐसा ....मै ऐसी विद्वता को दूर से ही सलाम करुगा । गुमनामी में रहना पसंद करुगा ..वहां मुझे ज्यादा शुकून मिलेगा ।
अगर किसी को मेरी बात अच्छी नही लगी हो तो मै माफ़ी चाहता हूँ पर एक बात तो साफ़ कर दूँ की मैंने जो कहा या लिखा है वह शत प्रतिशत सही है ।
Tuesday, March 24, 2009
डॉक्टर साब उर्फ़ गुड्डू भाई ..
बहुत बातूनी भी है ....जो एक नेता टाइप के व्यक्ति को होना भी चाहिए । पर हद तब हो जाती है जब बोलते बोलते बहक जाते है ... तब एर्थ का अनर्थ हो जाता है । एक बार ऐसे ही एक व्यक्ति को जो उनका अच्छा फ्रेंड है ,को प्रकांड विद्वान् की जगह प्रखंड विद्वान् कह दिया और झेप गए । वैसे तो इस तरह की गलतियाँ सभी लोग करते है , पर हमारे नेताजी उर्फ़ गुड्डू भाई कुछ जयादा ही एक्सपर्ट है । इमोशन में आकर अपनी ही बातों में फंस जाते है .... बाद में उसपर विचार करते है । आलसी तो बिल्कुल नही है , कही भी जाने के लिए तैयार रहते है ,किसी की मदद करना तो उनका रोजमर्रा का काम है ।
एक दिन की बात है वह अपने एक मित्र के साथ रिक्से से जा रहे थे , उनकी बातों से रिक्सा वाला उनको डॉक्टर समझ लिया और कहा की डॉक्टर साब मुझ पर कृपा कर एक दवा बतला दीजिये , मुझसे रिक्सा नही चल रहा है । फ़िर इनको अपनी डॉक्टर गिरी दिखाने का मौका मिल गया । और वैसे ही कुछ दवा का नाम भी बतला दिए ।
रिक्सीवाला हो या खोमचेवाला , चायवाला हो या ठेलेवाला , इन सबसे उनकी खूब बनती है । जनाधार वाले नेताओं की यही तो निशानी होती है । मुझे इस बात का डर लगता है की अगर वो किसी बड़े पद पर चले गए और उनको मिडिया के सामने बोलने का मौका मिले तो क्या बोल देगे कुछ कहा नही जा सकता । कई ट्रेलर तो दिखला भी चुके है । यह भी सोचता हूँ की तब तक आदत सुधर जायेगी और ये बचपना ख़त्म हो जायेगी ।
उनके पास भाँती भाँती के जीव जंतु भी आते रहते है । मै अपने को एक जंतु ही मानता हूँ सो उनके मित्रों या परिचितों को जंतु कह दिया । एक दिन ऐसे ही एक जंतु के मुख से निकल गया की मेरे पास एक दांत और बतीस मुंह है ... आप सोच सकते है , उसकी क्या हालत हुई होगी । खैर अच्छे आदमी है ... मेरे अभिन्न मित्र है । हम साथ साथ रहते भी है । मेरे मन में कोई दुर्भावना भी नही है ।
कभी कभी कोमेडी भी करते है तब मै सोचता हूँ की बेकार में वह नेता गिरी के चक्कर में पड़े है , उन्हें लाफ्टर चैनल ज्वाइन कर लेना चाहिए । उम्र लगभग पैतीस की और वजन ५१ किलो की कामेडियन में जमेगे भी ।
मुझे लगता है की शायद जल्दी किसी बात का बुरा नही मानते इस लिए उनके बारे में इतना लिखने पर भी डर नही लगा ।
Thursday, March 19, 2009
हमारी नई पीढी की साख पर बट्टा लग गया है .....
Sunday, March 15, 2009
शिक्षा पर एक लेख की शुरुआत ....
आइये कुछ जानते और करते है .....
१९७६ में शिक्षा को समवर्ती सूचि में डाला गया था । इसके साथ ही शिक्षा के प्रसार में काफी प्रगति हुई । लेकिन अभी भी बहुत कुछ किया जाना बाकी है । १९४७ में केवल १४ फीसदी लोग ही साक्षर थे जबकि २००१ की जनगणना के अनुसार ६५ फीसदी लोग साक्षर है । आकडे से लगता है की हमने काफी कुछ किया है , पर दुसरे बड़े देशों से तुलना करनेपर पाते है की हम अभी बहुत पीछे है । अगली कड़ी में और बातें होगी ।
Thursday, March 12, 2009
बंगलादेश में सैनिक विद्रोह ..
इस विद्रोह की दो प्रमुख वजहें बताई जा रही हैं। बीडीआर के जवान सेना के जवानों जैसा वेतन और अन्य सुविधाएं नहीं मिलने और बीडीआर के सभी उच्च पदों पर सेना के अफसरों की तैनाती से नाराज थे। उनकी नाराजगी की दूसरी बड़ी वजह यूएन पीस मिशन पर बीडीआर के जवानों को नहीं भेजा जाना बताई जा रही है। पर ये दोनों इतनी बड़ी वजहें नही है की वे
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यह बगावत अचानक नहीं हुई है । ऐसे संकेत और सबूत हैं कि इस नरसंहार के लिए लंबे समय से तैयारी की जा रही थी। खुफिया जानकारियों के अनुसार चटगांव, राजशाही और खुलना में इस से पहले कई गुप्त बैठकें हुई थीं, जिनमें इस घटना को अंजाम देने का खाका तैयार किया गया था। बगावत के लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार माने जा रहे बीडीआर के डिप्टी अडिशनल डाइरेक्टर तौहीदुल आलम ने भी इन बैठकों में शिरकत की थी। वारदात को अंजाम देने के लिए तारीख भी बहुत सोच-समझकर चुनी गई थी। बांग्लादेश के पूर्व सैनिक और खुफिया एजंसी अधिकारियों के मुताबिक इस बगावत का जिम्मा प्रफेशनल किलर स्क्वॉड को सौंपा गया था . उन्हें बीडीआर जवानों की वर्दी पहना कर अंदर भेजा गया था।
बगावत अचानक नहीं हुई और जवानों ने किसी उत्तेजना में गोलियां नहीं चलाईं, यह इस बात से भी साफ है कि हत्यारों के चेहरे लाल कपड़े से ढके हुए थे और वे दरबार हाल के अलग-अलग दरवाजों से दाखिल हुए थे। यही नहीं, वारदात के बाद भागने के लिए जिन रास्तों का इस्तेमाल किया गया, जहां से वही आदमी निकल सकता था जो उस इलाके से पहले से परिचित हो। घटना के बाद बीडीआर का शस्त्रागार भी लूटा गया और उसके दो सौ साल पुराने रेकॉर्ड रूम को आग लगा दी गई। इस बात से पता चलता है की कितने गुप्त तरीके से इस घटना की तैयारी की गई थी ।
इस साजिश की जड़ें कहां थीं और इसका मकसद क्या था? कहीं इसमें बांग्लादेश के शिपिंग जाइंट सलाउद्दीन का तो कोई हाथ नहीं था? इधर इस मामले में जब से सलाउद्दीन का नाम सामने आया है, कई उलझी हुई कडि़यां अपने-आप ही खुलने लगी हैं। यह किसी से छिपा नहीं है कि चटगांव आर्म्स ड्रॉप केस में अल्फा उग्रवादियों तक हथियार पहुंचाने के लिए किस तरह सलाउद्दीन के जहाजों का इस्तेमाल किया गया था। पाकिस्तान की सैनिक खुफिया एजंसी आईएसआई और बांग्लादेश की विपक्षी पार्टी बीएनपी से भी उसके करीबी रिश्ते हैं।
बांग्लादेश के स्वतंत्रता संग्राम में प्रमुख भूमिका निभाने वाले बीडीआर में बगावत भड़काने की साजिश में आईएसआई की भूमिका भी सवालों के घेरे में है। माना जा रहा है कि इस बगावत का मकसद बांग्लादेश की सुरक्षा के लिए जिम्मेदार दो प्रमुख सैनिक बलों -बांग्लादेश सेना और बीडीआर- दोनों को एक दूसरे के खिलाफ खड़ा कर के देश में गृहयुद्ध जैसे हालात पैदा कर देना था।
वेतन और सुविधाओं में बेहतरी के नाम पर की गई एक सुरक्षा बल की इस बगावत का असली निशाना दरअसल बांग्लादेश में लंबे अंतराल के बाद चुनी गई लोकतांत्रिक सरकार ही थी। और यही नहीं, अगर बगावत अपने उद्देश्य में पूरी तरह कामयाब हो जाती, तो यह न केवल बांग्लादेश, बल्कि भारत के लिए भी एक बहुत बड़ा झटका होती। आगे भारत को बांग्लादेश की स्थिति पर गहराई से विचार करना होगा । साथ ही ऐसी प्रवृति पर रोक लगाने के लिए कारगर उपाय करना होगा ।
Friday, February 27, 2009
गांधी की यादें सहेज कर भारत में लाना चाहिए ..
मुझे तो यह सुन कर काफी खुसी और शुकून मिल रहा है की सरकार ने गांधी जी की निशानियों को भारत लाने का फैशाला किया है । ये देश की धरोहर है , हाथ से नही निकलना चाहिए । इन धरोहरों में गांधी जी का मेटल की किनारी वाला चश्मा, जेब घड़ी और कुछ बर्तन आदि पांच चीजें शामिल हैं।
Thursday, February 26, 2009
...... और आजादी चाहिए
बच्चे थे तो सोचते थे .... लड्डू खाना ही आजादी है ...... आज सोचते है काश सबको रोटी मिलती ..... आजादी लड्डू से नही ,रोटी से मिलेगी
रोटी पाना आज भी ...... गांधी के राज में दुर्लभ है ...... आम आदमी कहने को तो रास्त्रपति और प्रधानमन्त्री बन सकता है ..... लेकिन सिर्फ़ कागज के टुकडों पर ...... हकीकत कौन नही जानता ..... सत्ता पर किन लोगों का कब्जा है ......
देश की बुनियाद में ही कुछ गड़बड़ है .... सोचना होगा .......
Wednesday, February 25, 2009
स्लम और स्लम डॉग
Monday, February 23, 2009
देश को सबसे ज्यादा खतरा बंगलादेशी कीडों से है ...
Sunday, February 22, 2009
हरिता देयोल कौर थी ?
Friday, February 20, 2009
सोमनाथ का शाप ......
ये शाप है व्यथित लोकसभा स्पीकर सोमनाथ चटर्जी का ।
आज संसद लोकतंत्र के मन्दिर के रूप में अपनी पहचान खोता जा रहा है ....लगता है ....वहां मछली का बाजार लगा है । गंभीर चर्चा की बात तो छोडिये ,किसी भी तरह की चर्चा होना मुस्किल हो गया है
हमारे जन प्रतिनिधि कैमरे के सामने कुतों की भाँती भौकने का कोई भी अवसर नही छोड़ते ।
सोमनाथ जी ने सही कहा .....हंगामा करने वालों को एक फूटी कौडी भी नही देना चाहिए ।
.....पर हमारे आदरणीय सांसदों को इससे क्या लेना .....वे तो कसम खाए बैठे है ....हम तो हुडदंग करेगे ही ...
संसद से सम्बंधित कोई नियम कानून बनने के सवाल पर तो उनकी जबान बंद हो जाती है ........
ऐसे हम और आप जैसे लोग सोमनाथ जी की तरह व्यथित हो अपनी भडास ही निकाल सकते है ......
Thursday, February 19, 2009
Wednesday, February 18, 2009
पाकिस्तान का स्विट्जरलैंड...
चौराहे पर रोज एक लाश टंगी नजर आती है। चारो ओर सन्नाटा पसरा नजर आता है। तालिबानी फिरौती के लिए किसी को भी टांग ले जाते है. को-एड और गर्ल्स स्कूलों के खिलाफ करीब महीने भर चली तथाकथित शरियत मुहिम में जब ऐसे कई स्कूल ढहा दिए गए तो लड़कियों का स्कूल जाना तो ऐसे ही बंद हो गया । ऐसे स्विताजर लैंड को देख कर मन व्यथित हो उठता है। की लोग चाहे तो स्वर्ग को भी नरक बना सकते है। इसका प्रमाण हमें स्वात में मिल जाता है ।
मार दो फाइनल पंच......
द फाइनल इंच पोलियो पर आधारित कहानी है.इसका प्रमुख किरदार गुलजार है। उसके दोनों पैर पोलियो से बेकार है .लेकिन वह हतोत्साहित नही है ,जीने और कुछ करने की लालसा रखता है । इस फ़िल्म में दिखलाया गया है की भारत में पोलियो की समाप्ति के लिए क्या प्रयास किए जा रहे है । उम्मीद है स्लम दाग के अलावा ये दोनों फिल्म आस्कर में जरुर कामयाबी हासिल करेगी ।
अफ्शोश तब होता है जब मै अपने कई मित्रों से बात करता हूँ और उन्हें इन फिल्मों के बारे में अनजान पाता हूँ । वे नाम भी नही जानते है । लेकिन यही फिल्म भारत की सही तस्वीर प्रस्तुत कराती है।
फिर वही राग .....
Sunday, February 15, 2009
राजनीति में रैंगिंग
Saturday, February 14, 2009
एक सपना
एक सपना देखा
सपने में
आकाश दिखा
बादल दिखे
पंछी दिखे
उनके साथ
तुम दिखे
हवा से
बातें करते हुए
मस्ती से
चलते हुए
अनजान
राहों पर
कुछ लोग दिखे
उनके साथ
तुम दिखे
तेरा चहकना
पंछियों जैसा
तेरा चमकना
चाँद जैसा
तेरा महकना
खुशबू जैसा
तेरा गुनगुनाना
भौरें जैसा
सब देखा
बहुत सुंदर
एक सपना देखा
Friday, February 13, 2009
कुछ सोच कर निकला हूँ
अब और नही
अपने तरीके से रहना है
जीना है
फिर भी ,सोचता हूँ
जिंदगी एक ही ट्रैक पर रहे
उसमे भी मजा नही
कुछ अलग होना चाहिए
पर ऐसा नही की
जिंदगी रुक ही जाए
अब और नही
कुछ सोच कर निकला हूँ
मेरी पतंग
खोज रहा हूँ
मिलतीही नही
अब कटे माझें को
समेट रहा हूँ
परअब उसका
क्या मोल
आसमान में उड़ती
जींदगी गुम
हो गई है
खोज रहा हूँ
मिलती ही नही
Thursday, February 12, 2009
विचित्र आदमी
मै भी एक विचित्र आदमी हूँ .अपने को जान रहा हूँ। परेशान हो रहा हूँ । कोई राह नही दिखती ।
सोचता हूँ ,विचित्रता क्या है .यह कितनी गहरी है .कोई नाम नही कोई पहचान नही ।
नही समझ पाता। खोज रहा हूँ ,कई दिनों से अंजुरी भर रोशनी । वो भी मुअस्सर नही ।
सारा ताना बाना अपने से ही छिपाता हूँ .बड़ा ही विचित्र आदमी हूँ ।
जानता हूँ चरित्र की जटिलता मुझमे नही है । साफ हूँ । फिर भी अपने से अनजान हूँ ।
विचित्र परिस्थितियों में ओस की बूंदों की तरह लुढ़कता रहा हूँ .निजपन का अभाव है ।
भय नही ,छल नही ,फिर भी विचित्र हूँ .ख़ुद से संवाद में माहिर हूँ ,पर प्रतिरोध में नही ।
अपने में निखर चाहता हूँ .मिसाल खड़ी करना चाहता हूँ ,पर लुदकाव जाता ही नही।
बेचैनी है ,वह भी विचित्र है।
सोचता हूँ ,जीवन एक बार मिलता है । उमर निकल जायेगी तब मेरी सतरंगी इच्छाओं का
क्या होगा ।
इसी सोच में समय बरबाद करता हूँ .बड़ा विचित्र आदमी हूँ।
Monday, February 9, 2009
जरुरत नही
छायादार पेड़
अब जरुरत नही
हाथ ही मेरा प्रहारनही छीनता किसी का आहार
गर्मियो के दिन
बीत गए पंखे बिन
शीतल जल
अब जरुरत नही