Tuesday, December 29, 2009

अहिंसा मेरे विश्वास का पहला नियम है । यही मेरे विश्वास का अन्तिम नियम भी है ।

महात्मा गाँधी अहिंसा को अपना धर्म मानते थे । इसलिए असहयोग आन्दोलन के दौरान हिंसा होने पर उन्होंने आन्दोलन वापस लेने का फैसला लिया था । इस कदम की आलोचना भी हुई पर उन्होंने अहिंसा के नाम पर समझौता नही किया । असहयोग आन्दोलन उनका अपना चलाया गया आन्दोलन था अतः वापस लेने अधिकार केवल उन्हें ही था । हालांकि इससे जनता के बिच कुछ निराशा जरुर हुई लेकिन जल्द ही उनके अनुयायी गांवों में रचनात्मक कार्यों में लग गए । यही रचनात्मक कार्य अगले आन्दोलन की नींव रखने वाले थे । सच बात तो यह है की गाँधी जी के पास हमेशा कोई न कोई काम रहता ही था । वे कभी भी खाली नही बैठे ।

अहिंसा मेरे विश्वास का पहला नियम है । यही मेरे विश्वास का अन्तिम नियम भी है । ये कथन गाँधी जी का है । इन वाक्यों हमें समझ आता है की उनके लिए अहिंसा के मायने क्या थे ?

Tuesday, December 22, 2009

मनुष्य प्रकृति और समय

हर क्षण हर पल इस स्रष्टि में कुछ न कुछ होता रहता है ! "समय" इक पल भी नहीं ठहरता ! समय का चक्र निरंतर घूमता रहता है ! जब मै इस लेख को लिख रहा हूँ, मुझे मै और मेरे विचार ही दिख रहे है ! ऐसा प्रतीत होता है, जैसे की कुछ हो ही नहीं रहा ! हवा शांत है ! सरसों के पीले खेत इस भांति सीधे खड़े है, जैसे किसी ने उन्हें ऐसा करने का आदेश दिया हो ! चिड़ियों की चहचहाहट, प्रात: कालीन समय और ओस की बूंदे, बहुत भली लग रहीं हैं ! सूर्य खुद को बादलों के बीच इस भांति छुपा रहा है, जैसे कोई लज्जावान स्त्री पर पुरुष को देख कर अपना मुंह आँचल में छुपा लेती है ! कोहरे को देख कर, बादलों के प्रथ्वी पर उतर आने का भ्रम हो रहा है ! दिग दिगंत तक शांति और सन्नाटा फैला हुआ है ! एक ऐसा दुर्लभ अनुभव हो रहा है, की अब मेरे विचार और मेरी कलम के सिवा कुछ है ही नहीं ! मानो समय थम सा गया हो! लगता है समय ने अपना नियम तोड़ दिया है ! किन्तु वास्तव में ऐसा नहीं है ! अभी भी स्रष्टि में कहीं न कहीं कुछ न कुछ हो रहा है ! समय अपने नियम पर अटल है ! इस समय जब आप मेरे लेख को पढ़ रहें हैं, उसी क्षण इस प्रथ्वी पर कहीं न कहीं कुछ न कुछ हो रहा है ! किसी के यहाँ खुशियाँ तो किसी के घर पर किसी के म्रत्यु का शोक मनाया जा रहा है ! कोई बीमारी से पीड़ित है, तो किसी को रोग से मुक्ति मिली है ! समय अपना कार्य कर रहा है ! प्रकृति का यह नियम अटूट है ! मनुष्य और प्रकृति का परस्पर घनिष्ट सम्बन्ध है ! "मनुष्य की उत्त्पति प्रकृति की सहायता के लिए तथा प्रकृति का निर्माण मनुष्य की सहायता के लिए हुआ है" ! मनुष्य और प्रकृति एक दूसरे के पूरक हैं ! कहा जाता है की मनुष्य अपने लाभ के लिए कुछ भी कर सकता है, हुआ भी वही ! अपने लाभ हेतु मनुष्य प्रकृति के प्रति अपना कर्तब्य भूल गया ! उसने पेड़ काटने शुरू कर दिए ! मनुष्य ने बड़े बड़े वनों को काट डाला ! उसने पर्वतों को भी नहीं छोड़ा ! कई पहाड़ों को बेध डाला ! मनुष्य ने प्रकृति के साथ विशवास घात किया ! जिससे प्रकृति को बहुत कष्ट हुआ ! वनों में रहने वाले जीव जंतु इधर उधर भटकने लगे, उनका अस्तित्व खतरे में पड़ गया ! कई दुर्लभ जीव जंतु और वनस्पतियों का अस्तित्व ही मिट गया ! इससे प्रक्रति बहुत क्रोधित हो गई ! उसने भी मनुष्य के प्रति अपने कर्तब्य को भुला दिया ! पर्यावरण असंतुलित हो रहा है ! वर्षा का कोई ठिकाना नहीं ! कभी सूखा तो कभी बाढ़, तो कभी लहलहाते फसलों पर ओलों का आक्रमण पता नहीं क्या होने वाला है ! पर्वतों के क्षरण से प्रथ्वी असंतुलित हो गई ! फलस्वरूप भूकंप आने लगे ! वनों के कटने से हवा मानसून को एक जगह टिकने नहीं देती ! ठंडी गर्मी और बरसात का कोई नियम ही नहीं रहा ! गर्मी बढ़ रही है, ओजोन परत का छिद्र दिन ब दिन बढ़ रहा है ! प्रदुषण से वातावरण ग्रसित हो गई है !

हवा विषैली हो गई है ! पानी भी पीने योग्य नहीं रहा ! मृदा में भी मनुष्य ने ज़हर घोल दिया है ! प्रतीत होता है की "क़यामत" की शाम नजदीक है !
लेकिन मनुष्य अभी भी नहीं चेता, उसके लोभ ने उसे अँधा कर रखा है ! वनों की कटाई अभी भी जारी है ! बड़े-बड़े कारखानों से निकलने वाला धुंवा लगातार हवा को विषैला बना रहा है ! कारखानों का केमिकल मिला पानी नदियों के जल को जहरीला बना रहा है ! आखिर क्या होगा ! तरह तरह के राशायानिक खादों का प्रयोग करके मृदा को दूषित किया जा रहा है, जिससे मिटटी की उर्वरा शक्ति दिन ब दिन कम होती जा रही है, जो की फसलों के उत्पादन में कमी का कारण है ! फलस्वरूप महंगाई बढ़ रही है, जिसके परिणाम स्वरूप भ्रस्टाचार और मानवीय हिंसा बढ़ रही है !
एक समय था जब हर तरफ हरियाली ही हरियाली और शुद्ध हवा थी, नदियों का पीने योग्य था, और आज बिलकुल विपरीत है ! "मनुष्य" "प्रकृति" और "समय" ! मनुष्य और प्रकृति के इस लड़ाई का साक्षी "समय" है ! समय अपना कार्य कर रहा है ! इस लड़ाई से "समय" का तो कुछ भी नहीं बिगड़ेगा, किन्तु "मनुष्य" और "प्रक्रति" का पति नहीं क्या होगा ! "समय" ने ऐसी कई घटनाओं को देखा और इतिहास के पन्नो में दफ्न किया है ! "समय" अपना कार्य कर रहा है ! "समय" का चक्र चल रहा है, और सदा चलता रहेगा !

Monday, December 7, 2009

महंगाई का जिम्मेवार कौन??


आज चारों और महंगाई का शोर है.लोग बुरी तरह से त्रस्त हो गए है पर ये है कि कम होने कि बजाय बढती ही जा रही है.अब तो हालात इस कदर बिगड़ गए है कि लोगों को समझ नहीं आ रहा कि इससे कैसे निपटें?और हमारे मंत्री जी और सरकार हमें और डरा रहें है.हमें दिलासा देने कि जगह वो इसके और बढ़ने के संकेत दे रहे है.आख़िर और कितनी बढ़ेगी ये? हमने यानी लोगों ने कांग्रेस को चुना है तो जवाब भी इन्हे ही देना होगा.बी जे पी के ज़माने में एक बार प्याज ने रुलाया था तो कितना हंगामा हुआ था..पर सरकार ने कंट्रोल करके मामला संभाल लिया था.पर यहाँ तो ख़ुद सरकार कह रही है अभी दाम और बढ़ेंगे.तो फ़िर जनता क्या करे?किस्से अपना दुःख कहे?वो ख़ुद क्यूँ दुःख भोगे?आख़िर सरकार कोई कारगर कदम क्यों नहीं उठती?चाहे आयात करे या फ़िर निर्यात पर रोक लगानी पड़े,जो भी करना है करे..पर जनता को महंगाई से निजात दिलाये...

सरकार को चाहिए कि वो अपनी निति में बदलाव करे,अपनी वितरण प्रणाली सुधारे,जमाखोरी पर अंकुश लगाये और किसी भी तरह जनता को राहत दे...क्योंकि ये जिम्मेवारी है उसकी....समाधान सरकार ही को करना है.जो भी संसाधन उपलब्ध है उनका पूरा उपयोग करे.

आजादी के बाद भी नहीं ख़त्म हुई आदिवासिओं की समस्याएं

स्वतंत्रता प्राप्ति के ६२ वर्षो पशचात भी आदिवासिओं की समस्याओं का कोई ठोस हल नहीं निकला जा सका ! वर्तमान समय में भी अनेक प्रकार के शोषण , उत्पीडन तथा अत्याचार के शिकार है जिसके लिए हमारी सरकार जिम्मेदार है ! वर्तमान समय में भूमि तथा वन कानून आदिवासियों के लिए बहुत कठोर है ! उन्हें आजीविका के लिए वनों के प्रयोग की स्वतंत्रता नहीं है ! ठेकेदार , वनाधिकारी तथा साहूकार आदि इनका शोषण करते है !




इस कारण इनकी परम्परागत अर्थ व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो गई है तथा आर्थिक रूप से ये बिलकुल पिछड़ गए हैं ! अधिकाँश आदिवासी आधुनिक समय में भी गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन कर रहे हैं ! आदिवासी उपयोजना , बीस सूत्री कार्यक्रम , केन्द्रीय सहायता तथा विशेष योजनाओं के बावजूद भी आदिवाशियों के आय में कोई खासा फर्क नहीं पड़ा है! गरीबी दूर करने वाली आई० आर० डी ० पी० योजना में छोटे तथा सीमांत आदिवासी किसानो को सरकार तराजू पकडा रही है !



शिक्षा तथा सहरी सभ्यता से दूर जंगलो में निवाश करने वाले आदिवासिओं का शोषण कोई नई बात नहीं है ! वनों से प्राप्त नैसर्गिग संपदा के लिए ठेकेदारों, साहूकारों तथा बिचौलियों द्वारा भारी शोषण किया जाता है ! वन से उत्पन्न वस्तुएं जैसे चिरौंजी, शहद आदि महँगी वस्तुओ का उचित मूल्य इन्हें नहीं मिल पाता ! लघु वन उत्पादों में वृद्धि की गई है! उसका लाभ इन लाखों आदिवासियों को न मिल कर चंद बिचौलियों के तिजोरी में बंद हो जाती है ! औद्योगीकरण के नाम पर जो ढांचा खडा किया गया है ! उससे सम्पूर्ण देश में बेदखल लोगो की एक लम्बी मांग खड़ी हो गई है!



चाहे कोयले की खाने हो या बाँध या अन्य भारी कारखाने तथा उद्योग हो कुल मिलाकर उनका लाभ कुछ वर्ग विशेष के लोगों को ही प्राप्त हो रहा है ! जिस गरीब आदिवासी की जमीं से कोयला निकला जाता है तथा विकाश के लिए जिस बुनियाद की नींव रखी जाती है उसमे आदिवासियों की भूमिका केवल ढाँचे तक ही सिमित रहती है ! सैकणों वर्षो से जिस जमीन से वह जुदा होता है, उससे अध्योगीकरण के नाम पर उसे वंचित कर दिया जाता है! उसकी जमीन के बदले हर्जाने के लिए कोई समय-सीमा निर्धारित नहीं की जाती! एक अधि सूचना द्वारा जिसे आदिवासी पढ़ भी नहीं सकता, जमीन सर्कार की हो जाती है! इसी प्रकार के कई अन्य अनेक समस्याओं के कारण आदिवासिओं का जीना दूभर हो गया है !




अत: सरकार को चाहिए की वो आदिवासिओं के हितार्थ कुछ नए नियम पारित करे जिसका की कडाई से पालन हो ताकि आदिवासिओं को "सामाजिक" , "आर्थिक" और "धार्मिक" समस्याओं से मुक्ति मिले जिससे की वह एक ने जीवन की शुरुआत करें