Wednesday, February 25, 2009
स्लम और स्लम डॉग
स्ल्मदाग की किस्मत तो चमक गई .... उसे ८ आस्कर अवार्ड मिले । लेकिन यह पिक्चर कुछ सवाल छोड़ गई है .....जिसका निदान ढूढ़ना इतना आसान नही है । उन झुगियों की किस्मत कब चमकेगी .... जहाँ नारकीय जीवन जीने के लिए मजबूर होना पड़ता है। भारतीय जनगणना 2001 के आंकड़ों के मुताबिक शहरी भारतीयों में से करीब 15 फीसदी लोग (संख्या में करीब 3।3 करोड़) झुग्गी बस्तियों में रहते हैं। हालांकि कुछ स्वतंत्र अध्ययनों में यह आंकड़ा 22 फीसदी तक बताया गया है। जनगणना के मुताबिक तुलनात्मक आंकड़ा समूचे देश के लिए 4 फीसदी ज्यादा यानी या 4।26 करोड़ है। देश में सर्वाधिक आबादी वाले टॉप 100 शहरों में 2।9 करोड़ झुग्गीवासी बसते हैं। मुंबई में हर दूसरा, कोलकाता में हर तीसरा और दिल्ली में हर 10वां शख्स झुग्गी में रहता है। ठाणे शहर, चेन्नई, नागपुर, उत्तरी 24 परगना के शहरी इलाके, हैदराबाद, पुणे और रंगारेड्डी के शहरी क्षेत्र ऐसे 10 शीर्ष शहर हैं जहां देश में झुग्गवासियों की सबसे ज्यादा तादाद है। दुर्भाग्य की बात है कि भारत में झुग्गी बस्ती महानगर या किसी बड़े शहर तक ही सीमित नहीं है। देश के 640 से ज्यादा शहरों और कस्बों में झुग्गी में बसने वाली आबादी रहती है। अगर आप शहर की कुल आबादी के अनुपात में झुग्गीवासियों की संख्या रखते हैं तो मुंबई (53 फीसदी) के बाद हरियाणा का फरीदाबाद (42 फीसदी), आंध्र प्रदेश का अनंतपुर (36 फीसदी), गंटूर(32 फीसदी), नेल्लोर (31.8 फीसदी) और विजयवाड़ा (30.7 फीसदी), पश्चिम बंगाल का धूपगिरि (33.5 फीसदी) और कोलकाता (30 फीसदी), उत्तर प्रदेश का मेरठ (35 फीसदी) और मेघालय का शिलॉन्ग (31.8 फीसदी) इस मोर्चे पर देश के टॉप 10 शहरों में शामिल हैं। और झुग्गी की परिभाषा क्या है? भारत की जनगणना 2001 के मुताबिक जहां बेहद अस्तव्यस्त तरीके से बने आवासों में कम से कम 300 की आबादी या करीब 60-70 परिवार रहते हैं उन्हें स्लम एक्ट समेत किसी भी कानून में झुग्गी कहा जाता है। ऐसे इलाकों में स्वच्छता का ध्यान नहीं रखा जाता, बुनियादी ढांचा अपर्याप्त होता है और पेयजल तथा शौचालय की सही व्यवस्था नहीं होती। हालांकि झुग्गी बस्ती में रहने वाले लोग उपभोक्ताओं की फेहरिस्त में सबसे नीचे (बिलो द पिरामिड या बीओपी) गिने जाते हैं लेकिन उनकी भारी संख्या उन्हें देश में सबसे बड़ा उपभोक्ता बाजार बनाती है। नई दिल्ली स्थित इंडिकस एनालिटिक्स के एक विश्लेषण के मुताबिक शहरी भारत में बीओपी बाजार 6.5 लाख करोड़ रुपए से ज्यादा का है।इन झुगियों में उजाला कभी आता ही नही .....बच्चे भूख से बिलगते रहते है । इस फ़िल्म में तो जमाल को नोलेज की खान बताया गया है और वह अपने अनुभव से सभी सवालों का जबाब भी देता है लेकिन रिअल लाइफ में ऐसा नही होता ......झुगियों के बच्चे स्कूल नही जाते ..... कूड़ा बीनते रहते है .... ग़लत हाथों में पड़ कर शोषित होते है.... क्या स्लाम्दाग के निर्माता , निर्देशक या कलाकारों को इस फ़िल्म की कमाई में से कुछ पैसा झुगियों के विकास पर नही खर्च करना चाहिए । क्या हमारी सरकार को इस सम्बन्ध में ठोस निति नही बनानी चाहिए ?... इन सभी सवालों के जबाब कौन देगा ?एक बात तो हमें अमझ लेनी चाहिए की भले हम चाँद पर पहुँच जाए लेकिन रिअल विकास तभी होगा जब स्लम एरिया के लोग खुशहाल होगे.
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1 comment:
झुग्गी झोपडी में रहने वालों की हालत किसी से छिपी नही है । पर इसके लिये बाहर वालों का मुँह ताकना तो कोई हल नही हुआ सरकार करे लोग करें यदि एक एक मध्य वर्ग का परिवार एक झुग्गी के बच्चे को पढाने का जिम्मा ले तो आधी समस्या तो मिट ही सकती है । स्लमडॉग के निर्माता उन बच्चों की शिक्षा के लिये तो काम कर ही रहे हैं जिन्होंने उस सिनेमा में काम किया है .
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