भारत ग्लोबल वॉर्मिन्ग के लिहाज से हॉट स्पॉट है और इस वजह से यहां बाढ़, सूखा और तूफान जैसी प्राकृतिक आपदाएं बढ़ सकती हैं। एशिया में भारत के अलावा पाकिस्तान, अफगानिस्तान और इंडोनेशिया उन देशों में शामिल हैं, जो अपने यहां चल रही राजनैतिक, सामरिक, आर्थिक प्रक्रियाओं के कारण ग्लोबल वॉर्मिन्ग से सबसे ज्यादा प्रभावित होंगे।
किसी भी प्राकृतिक आपदा का प्रभाव कई कारकों के आधार पर मापा जाता है। मसलन सही उपकरणों और सूचना तक पहुंच और राहत और उपाय के लिए प्रभावी राजनैतिक तंत्र। कई बार इनका प्रभावी तरीके से काम न करना आपदा से प्रभावित होने वाले हाशिए पर पड़े लोगों की जिंदगी और भी बदतर कर देता है।
मौसम में बदलाव के कारण ज्यादा बड़े स्तर पर आने वाली प्राकृतिक आपदाओं से निपटने के लिए प्रभावी तंत्र बनाया जाए, नही तो तबाही और ज्यादा होगी। घनी आबादी वाले और खतरे की आशंका से जूझ रहे इलाकों में सरकारी तंत्र और स्थानीय लोगों को सुविधाएं और प्रशिक्षण दिया जाए, ताकि आपदा के बाद पुनर्वास के दौरान तेजी बनी रहे और काम की निगरानी भी हो।
हमारी पर्यावरण चिंताओं पर यह निराशावादी सोच इतनी हावी होती जा रही है कि अब यह कहना फैशन बन गया है कि जनसंख्या यूं ही बढ़ती रही तो 2030 तक हमें रहने के लिए दो ग्रहों की जरूरत होगी।
वर्ल्ड वाइल्डलाइफ फंड (डब्ल्यूडब्ल्यूएफ) और पर्यावरण संरक्षण से जुड़े कई अन्य संगठन इस फुटप्रिंट को आधार बनाकर जटिल गणनाएं करते रहे हैं। उनके मुताबिक हर अमेरिकी इस धरती का 9।4 हेक्टेयर इस्तेमाल करता है। हर यूरोपीय व्यक्ति 4.7 हेक्टेयर का उपयोग करता है। कम आय वाले देशों में रहने वाले लोग सिर्फ एक हेक्टेयर का इस्तेमाल करते हैं। कुल मिलाकर हम सामूहिक रूप से 17.5 अरब हेक्टेयर का इस्तेमाल करते हैं। लेकिन दुर्भाग्य से हम एक अरब इंसानों को धरती पर जीवित रहने के लिए 13.4 हेक्टेयर ही उपलब्ध है।
सभी तरह के उत्सर्जन में 50 फीसदी की कटौती से भी हम ग्रीन हाउस गैसों को काफी हद तक कम कर सकते हैं। एरिया एफिशियंशी के लिहाज से कार्बन कम करने के लिए जंगल उगाना बहुत प्रभावी उपाय नहीं है। इसके लिए अगर सोलर सेल्स और विंड टर्बाइन लगाए जाएं, तो वे जंगलों की एक फीसदी जगह भी नहीं लेंगे। सबसे अहम बात यह है कि इन्हें गैर-उत्पादक क्षेत्रों में भी लगाया जा सकता है। मसलन, समुद में विंड टर्बाइन और रेगिस्तान में सोलर सेल्स लगाए जा सकते हैं।
जर्नल 'साइंस' में छपी रिपोर्ट के मुताबिक, भारत समेत तीसरी दुनिया के अधिकांश देशों को तेजी से बढ़ती जनसंख्या और उपज में कमी की वजह से खाद्य संकट का सामना करना पड़ेगा। तापमान में बढ़ोतरी से जमीन की नमी प्रभावित होगी, जिससे उपज में और ज्यादा गिरावट आएगी। इस समय ऊष्ण कटिबंधीय और उप-ऊष्ण कटिबंधीय इलाकों में तीन अरब लोग रह रहे हैं।एक अनुमान के मुताबिक 2100 तक यह संख्या दोगुनी हो जाएगी। रिसर्चरों के अनुसार, दक्षिणी अमेरिका से लेकर उत्तरी अर्जेन्टीना और दक्षिणी ब्राजील, उत्तरी भारत और दक्षिणी चीन से लेकर दक्षिणी ऑस्ट्रेलिया और समूचा अफ्रीका इस स्थिति से सबसे ज्यादा प्रभावित होंगे।
एक रिपोर्ट में दावा किया गया है कि वर्ष 2050 तक ग्लेशियरों के पिघलने से भारत, चीन, पाकिस्तान और अन्य एशियाई देशों में आबादी का वह निर्धन तबका प्रभावित होगा जो प्रमुख एवं सहायक नदियों पर निर्भर है।
         आईपीसीसी         की         रिपोर्ट         में          बताया         गया         है         कि          2005             में         बिजली         सप्लाई         के         दूसरे         ऊर्जा         विकल्पों         की         तुलना         में         न्यूक्लियर         पावर         का         योगदान             16             प्रतिशत         है         ,             जो          2030             तक          18             प्रतिशत         तक         बढ़ाया         जा         सकता         है।         इससे         कार्बन         उत्सर्जन         की         कटौती         के         काम         में         काफी         मदद         मिल         सकती         है         ,             पर         इसके         रास्ते         में         अनेक         बाधाएं         हैं             -         जैसे         परमाणु         संयंत्रों         की         सुरक्षा         की         चिंता         ,             इससे         जुड़े         एटमी         हथियारों         के         प्रसार         का         खतरा         और         परमाणु         संयंत्रों         से         निकलने         वाले         एटमी         कचरे         के         निबटान         की         समस्या।    
अगर         एटमी         ऊर्जा         का         विकल्प         ऐसे         देशों         को         हासिल         हो         गया         ,             जिनका         अपने         एटमी         संयंत्रों         पर         पूरी         तरह         कंट्रोल         नहीं         है         ,             तो         यह         विकल्प         काफी         खतरनाक         हो         सकता         है।         ऐसी         स्थिति         में         वे         न         सिर्फ         खुद         बड़ी         मात्रा         में         परमाणु         हथियार         बनाकर         दुनिया         के         लिए         बड़ी         भारी         चुनौती         खड़ी         कर         सकते         हैं और आतंकवादी भी इसका फायदा उठा सकते है ।
आज दुनिया         एटमी         कचरे         के         पूरी         तरह         सुरक्षित         निष्पादन         का         तरीका         नहीं         खोज         पाई         है।         इसका         खतरा         यह         है         कि         अगर         किसी         वजह         से         इंसान         उस         रेडियोधर्मी         कचरे         के         संपर्क         में         आ         जाए         ,             तो         उनमें         कैंसर         और         दूसरी         जेनेटिक         बीमारियां         पैदा         हो         सकती         हैं।         इन         स्थितियों         के         मद्देनजर         जो         लोग         ग्रीन         हाउस         गैसों         के         उत्सर्जन         में         कमी         लाने         के         सिलसिले         में         एटमी         एनर्जी         को         एक         समाधान         के         रूप         में         देखने         के         विरोधी         हैं         ,             वे         अक्सर         अक्षय         ऊर्जा         के         दूसरे         स्रोतों         को         ज्यादा         आकर्षक         और         सुरक्षित         विकल्प         बताते         हैं।    
         एटमी         एनर्जी         कोई         सरल         -         साधारण         हल         नहीं         हो         सकती         ,             क्योंकि         एक         न्यूक्लियर         प्लांट         को         चलाने         के         लिए         बहुत         ऊंचे         स्तर         की         तकनीकी         दक्षता         ,             नियामक         संस्थानों         और         सुरक्षा         के         उपायों         की         जरूरत         पड़ती         है।         यह         भी         जरूरी         नहीं         है         कि         ये         सभी         जगह         एक         साथ         मुहैया         हो         सकें।         इसकी         जगह         अक्षय         ऊर्जा         के         विकल्पों         में         सार्वभौमिकता         की         ज्यादा         गुंजाइश         है         ,             पर         इनमें         भी         कुछ         चीजों         की         अनिवार्यता         अड़चन         डालती         है।         उदाहरण         के         लिए         सौर         ऊर्जा         या         पवन         ऊर्जा         की         क्षमता         वहां         हासिल         नहीं         की         जा         सकती         ,             जहां         सूरज         की         किरणें         और         हवा         पर्याप्त         मात्रा         में         उपलब्ध         न         हों।         जिन         देशों         में         साल         के         आठ         महीने         सूरज         के         दर्शन         मुश्किल         से         होते         हों         ,             वहां         सौर         ऊर्जा         का         प्लांट         लगाने         से         कुछ         हासिल         नहीं         हो         सकता।         इसी         तरह         पवन         ऊर्जा         के         प्लांट         ज्यादातर         उन         इलाकों         में         फायदेमंद         साबित         हो         सकते         हैं         ,             जो         समुद्र         तटों         पर         स्थित         हैं         और         जहां         तेज         हवाएं         चलती         हैं।
किसी         भी         देश         को         अपने         लिए         ऊर्जा         के         सभी         विकल्पों         को         आजमाना         होगा         और         अगर         उसके         लिए         ग्रीन         हाउस         गैसों         का         उत्सर्जन         महत्वपूर्ण         मुद्दा         है         ,             तो         उसे         अक्षय         ऊर्जा         बनाम         एटमी         ऊर्जा         के         बीच         सावधानी         से         चुनाव         करना         होगा।         यह         स्वाभाविक         ही         है         कि         एटमी         एनर्जी         को         लेकर         कायम         चिंताओं         के         बावजूद         अगले         पांच         वर्षों         में         इसमें         उल्लेखनीय         इजाफा         हो         सकता         है।         बिजली         पैदा         करने         वाले         ताप         संयंत्र             (         थर्मल         प्लांट         )             भारी         मात्रा         में         कार्बन         डाइ         -         ऑक्साइड         का         उत्सर्जन         करते         हैं         ,             जबकि         उनकी         तुलना         में         एटमी         संयंत्र         क्लीन         एनर्जी         का         विकल्प         देते         हैं।         उनसे         पर्यावरण         प्रदूषण         का         कोई         प्रत्यक्ष         खतरा         नहीं         है।         आज         दुनिया         जिस         तरह         से         क्लीन         एनर्जी         के         विकल्प         आजमाने         पर         जोर         दे         रही         है         ,             उस         लिहाज         से         भी         भविष्य         परमाणु         संयंत्रों         से         मिलने         वाली         बिजली         का         ही         है।         परमाणु         संयंत्रों         से         मिलने         वाली         बिजली         काफी         सस्ती         भी         पड़         सकती         है ।
सरकार         और         प्राइवेट         सेक्टर         को         अक्षय         ऊर्जा         के         मामले         में         शोध         और         डिवेलपमंट         पर         भारी         निवेश         करने         की         जरूरत         है।         इससे         अक्षय         ऊर्जा         की         लागत         में         उल्लेखनीय         कमी         लाई         जा         सकेगी।         आज         की         तारीख         में         कार्बन         उत्सर्जन         की         कीमत         पर         अक्षय         ऊर्जा         प्राप्त         करने         की         लागत         एटमी         एनर्जी         की         तुलना         में         काफी         ज्यादा         है।     
ऑस्ट्रेलिया के पास मौजूद पापुआ न्यूगिनी का एक पूरा द्वीप डूबने वाला है। कार्टरेट्स नाम के इस आइलैंड की पूरी आबादी दुनिया में ऐसा पहला समुदाय बन गई है जिसे ग्लोबल वॉर्मिंग की वजह से अपना घर छोड़ना पड़ रहा है - यानी ग्लोबल वॉर्मिंग की पहली ऑफिशल विस्थापित कम्युनिटी। जिस टापू पर ये लोग रहते हैं वह 2015 तक पूरी तरह से समुद्र के आगोश में समा जाएगा।
ऑस्ट्रेलिया की नैशनल टाइड फैसिलिटी ने कुछ द्वीपों को मॉनिटर किया है। उसके अनुसार यहां के समुद्र के जलस्तर में हर साल 8।2 मिलीमीटर की बढ़ोतरी हो रही है। ग्लोबल वॉर्मिंग के बढ़ने के साथ यह समस्या और बढ़ती जाएगी। कार्टरेट्स के 40 परिवार इसके पहले शिकार हैं।
इस तरह हमें ग्लोबल वार्मिंग की समस्या को काफी गंभीरता से लेना होगा । क्योटो प्रोटोकाल के बाद आने वाले प्रोटोकाल में इसके लिए पुख्ता इंतजाम किया जाना चाइये ताकि कोई भी अपनी जिम्मेदारी से बच नही सके । भारत सरकार को भी अपने स्टार से जिम्मेदारी का निर्वहन करना चाहिए । हम प्रकृति के साथ खिलवाड़ नही कर सकते अगर करते है तो आने वाली जेनेरेशन को जवाब देना पड़ेगा । अभी समय है और समय रहते ही त्वरित उपाय करने होंगे नही तो परिणाम भयंकर हो सकते है ।
Friday, October 23, 2009
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